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लेखनी कहानी -09-Mar-2023- पौराणिक कहानिया

वेग से चलती हुई गाड़ी रुकावटों को फाँद जाती है। सूरदास समझाने से और भी जिद पकड़ गया। सीधो गोदाम के बरामदे में जाकर रुका। इस समय यहाँ बहुत-से चमार जमा थे। खालों की खरीद हो रही थी। चौधारी ने कहा-आओ सूरदास, कैसे चले?

 

सूरदास इतने आदमियों के सामने अपनी इच्छा प्रकट कर सका। संकोच ने उसकी जबान बंद कर दी। बोला-कुछ नहीं, ऐसे ही चला आया।

 

ताहिर-साहब इनसे पीछेवाली जमीन माँगते हैं, मुँह-माँगे दाम देने को तैयार हैं! पर यह किसी तरह राजी नहीं होते। उन्होंने खुद समझाया, मैंने कितनी मिन्नत की; लेकिन इनके दिल में कोई बात जमती ही नहीं।

 

लज्जा अत्यंत निर्लज्ज होती है। अंतिम काल में भी जब हम समझते हैं कि उसकी उलटी साँसें चल रही हैं, वह सहसा चैतन्य हो जाती है, और पहले से भी अधिकर् कर्तव्यशील हो जाती है। हम दुरावस्था में पड़कर किसी मित्र से सहायता की याचना करने को घर से निकलते हैं, लेकिन मित्र से ऑंखें चार होते ही लज्जा हमारे सामने आकर खड़ी हो जाती है और हम इधार-उधार की बातें करके लौट आते हैं। यहाँ तक कि हम एक शब्द भी ऐसा मुँह से नहीं निकलने देते, जिसका भाव हमारी अंतर्वेदना का द्योतक हो।

 

ताहिर अली की बातें सुनते ही सूरदास की लज्जा ठट्ठा मारती हुई बाहर निकल आई। बोला-मियाँ साहब, वह जमीन तो बाप-दादों की निसानी है, भला मैं उसे बय या पट्टा कैसे कर सकता हूँ? मैंने उसे धरम काज के लिए संकल्प कर दिया है।

 

ताहिर-धरम काज बिना रुपये के कैसे होगा? जब रुपये मिलेंगे, तभी तो तीरथ करोगे, साधु-संतों की सेवा करोगे; मंदिर-कुऑं बनवाओगे?

 

चौधारी-सूरे, इस बखत अच्छे दाम मिलेंगे। हमारी सलाह तो यही है कि दे दो, तुम्हारा कोई उपकार तो उससे होता नहीं।

 

सूरदास-मुहल्ले-भर की गउएँ चरती हैं, क्ाय इससे पुन्न नहीं होता? गऊ की सेवा से बढ़कर और कौन पुन्न का काम है?

 

ताहिर-अपना पेट पालने के लिए तो भीख माँगते फिरते हो, चले हो दूसरों के साथ पुन्न करने। जिनकी गायें चरती हैं, वे तो तुम्हारी बात भी नहीं पूछते, एहसान मानना तो दूर रहा। इसी धरम के पीछे तुम्हारी यह दसा हो रही है, नहीं तो ठोकरें खाते फिरते।

 

ताहिर अली खुद बड़े दीनदार आदमी थे, पर अन्य धार्मों की अवहेलना करने में उन्हें संकोच होता था। वास्तव में वह इस्लाम के सिवा और किसी धर्म को धर्म ही नहीं समझते थे।

 

सूरदास ने उत्तोजित होकर कहा-मियाँ साहब, धरम एहसान के लिए नहीं किया जाता। नेकी करके दरिया में डाल देना चाहिए।

 

ताहिर-पछताओगे और क्या। साहब से जो कुछ कहोगे, वही करेंगे। तुम्हारे लिए घर बनवा देंगे, माहवार गुजारा देंगे; मिठुआ को किसी मदरसे में पढ़ने को भेज देंगे, उसे नौकर रखा देंगे, तुम्हारी ऑंखों की दवा करा देंगे, मुमकिन है, सूझने लगे। आदमी बन जाओगे, नहीं तो धाक्के खाते रहोगे।

 

सूरदास पर और किसी प्रलोभन का असर तो हुआ; हाँ, दृष्टि-लाभ की सम्भावना ने जरा नरम कर दिया। बोला-क्या जनम के अंधों की दवा भी हो सकती है?

 

ताहिर-तुम जनम के अंधे हो क्या? तब तो मजबूरी है। लेकिन वह तुम्हारे आराम के इतने सामान जमा कर देंगे कि तुम्हें ऑंखों की जरूरत ही रहेगी।

 

सूरदास-साहब, बड़ी नामूसी होगी। लोग चारों ओर से धिाक्कारने लगेंगे।

 

चौधारी-तुम्हारी जायदाद है, बय करो, चाहे पट्टा लिखो, किसी दूसरे को दखल देने की क्या मजाल है!

 

सूरदास-बाप-दादों का नाम तो नहीं डुबाया जाता।

 

मूर्खों के पास युक्तियाँ नहीं होतीं, युक्तियों का उत्तर वे हठ से देते हैं। युक्ति कायल हो सकती है, नरम हो सकती है, भ्रांत हो सकती है; हठ को कौन कायल करेगा?

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